Wednesday, 10 April 2013

भीड़ मे खुद को जब भी पाया तो तन्हा ही पाया .

जिसको चाहा वो चला गया ,
अकेला था अकेला ही रह गया । 

वो एक चेहरा फिर कभी न देख पाया ,
व़ो  एक हँसी जिसको कभी न समेट पाया ,
एक दिन अचानक बिछड़ के फिर न मिल पाया ,
वरना मिलने वालो को बिछड़ बिछड़ के मिलता पाया । 

कहाँ उनका रास्ता था और कहाँ रास्ता मेरा ,
कहीं किसी चौराहे रास्तों को मिलते न पाया ,
बिछड़ कर हर चेहरे एक चेहरा मे खोजता हूँ अब ,
भीड़ मे खुद को जब भी पाया तो तन्हा ही पाया ।