Wednesday, 7 November 2012

आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा



 आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा ,
 कब तक चलूँगा ईमान रास्ते पर कभी तो भटक ही जाऊँगा ।

लड़ता रहूँगा ताउम्र सच की खातिर,

जब पेट पर आयेगी तो बहक भी जाऊँगा  ,

आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा  ।

 कब चलता रहूँगा सूने रास्तों पर ,
 कभी तो किसी बेईमान दुपहिये पर लटक ही जाऊँगा ,
 आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा  । 

चटकते सब है चटकूँगा  मै भी पर  ,
दो चार को  आईना दिखा ही जाऊँगा  ,
आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा  ।

5 comments:

  1. आपके प्रेम मिश्रित शब्दों के लिए धन्यवाद ।

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  2. आइना चटकता हैं इस्तेमाल करने वाले की लापरवाही से ,मनुष्य अगर आइना है तो फिर उसके साथ लापरवाही कौन कर रहा हैं ...शायद परस्थितियाँ या फिर परिघटनाए जिन्हें वह स्वयं नहीं समझ पा रहा हैं....कविता में अर्थवत्ता की कमी स्पष्ट हैं परन्तु भावानुभुती तीव्रतम हैं

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    1. बस यूँ ही लिख दिया ।

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