बदलता रहा कलेंडर के पन्ने सालभर ,
बदला नहीं गम का मौसम सुबह शाम रात भर।
बाँटने के शौक मे क्या क्या न बँटा जमीन पर,
देश बँटे ,लोग बँटे,वक़्त तक बँटा कलेंडर पर ।
कितने सारे लोग आये हमदर्द बताकर ,
मौका पाकर ले गए कलेडर से सपनो को नोंच कर ।
सच का टोकरा लिए बैठे रहे हम कलेंडर पर ,
बिक गए दुनिया के सारे झूठ वक़्त के बाजार पर ।
बदलते साल की खुशियों मे डूबा है ये शहर ,
किसी ने देखा भूखे बचपन को ठिठुरते फुटपाथ पर ।
बहुत गहरे भाव समेट लिए गये है इस पोस्ट में .. बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteGood job Man carry On
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