Sunday, 30 December 2012

बदलता रहा कलेंडर के पन्ने सालभर


बदलता रहा कलेंडर के पन्ने सालभर ,
बदला नहीं गम का मौसम सुबह शाम रात भर। 

बाँटने के शौक मे क्या क्या न  बँटा जमीन पर,
 देश बँटे ,लोग बँटे,वक़्त तक  बँटा कलेंडर पर ।

कितने सारे लोग आये हमदर्द बताकर ,
मौका पाकर ले गए कलेडर से सपनो को नोंच कर ।

सच का टोकरा लिए बैठे रहे हम कलेंडर पर ,
बिक गए  दुनिया के सारे झूठ वक़्त के  बाजार पर ।

बदलते साल की खुशियों मे डूबा है ये शहर ,
किसी ने देखा भूखे बचपन को ठिठुरते फुटपाथ पर ।

Tuesday, 25 December 2012

लाठीशास्त्र का एक पन्ना


दुनिया मे सब नश्वर है  पर लाठी  अमर है ।बस समय के साथ और लठैत की मंशा  के साथ इसको चलाने के तरीके बदल गए ।सच मे तो लाठी एक मल्टीटास्किंग यंत्र है ,बुढ़ापे का सहारा भी है ,बदमाशो पर भी चलती है । लकिन जब सरकार की नहीं चलती तो निहत्थों पर भी चलती है ।


आजादी से पहले लाला लाजपत राय पर बरसी लाठियाँ अंग्रेजों के ताबूत की कील बन गयी और लाठी ने गाँधी जी को भी सहारा दिया  जिसे महात्मा गाँधी  पकड़ के चलते थे । इस तरह लाठी के योगदान को आजादी के आन्दोलन मे भी नहीं भुलाया जा सकता ।


आज के युग मे सरकारें भी देश को भी लाठियो से देश चलाती है ।सरकार के पास केवल  काठ की लाठी नहीं होती ,उसके पास धर्म जाति ,पैसे और फूट डालने की भी लाठियाँ होती है । रविवार को इंडिया गेट पर जब सामूहिक रेप के विरोध मे दिल्ली के युवा एकत्रित हुए तो खूब  पुलिसिया लाठी चली और लाठी फिर चर्चा मे आयी ।निहत्थे पर चलने वाली हर लाठी एक   की अगर आप देश के सच्चे नागरिक है तो आपने कभी न कभी लाठी का स्वाद चखा होगा ।

अंत मे जनता के पास भी चुनावी वोट की लाठी होती है ,जिसे समाज अपनी सोच का तेल लगा मजबूत कर सकता है ।
                    

Thursday, 6 December 2012

हाँ ,मैं अयोध्या हूँ ..

 न मैं हिन्दू हूँ ,

न मैं मुस्लिम हूँ ,
रंजिशों की चौखट  पर ,

रोती, पुत्र रक्त से नहलायी गयी माँ हूँ ,

हाँ ,मैं अयोध्या हूँ ।


न मैं मंदिर हूँ ,
न मैं मस्जिद हूँ ,
वोट बैंक  की लूट पर ,
प्रेम धर्म बतलाने वाली जीवन की घोर निराशा हूँ , 

हाँ ,मैं अयोध्या हूँ ।

 


 न मैं लक्ष्मीबाई हूँ ,
 न मैं रजिया सुल्ताना हूँ ,
राम खुदा के नाम पर ,
लूटी अस्मत  वाली नंगी आँखों का निवाला हूँ ,
हाँ ,मैं अयोध्या हूँ । 


न मैं बच्ची हूँ ,
न मैं बुढिया हूँ ,
दंगो  के मेलो  पर ,
सब हाथों से मरोड़ी गयी गुड़िया हूँ ,
हाँ ,मैं अयोध्या हूँ ।


(अयोध्या को हम सभी अपने धार्मिक पूर्वाग्रहों से देखते है ,कभी उस शहर की नजरों से नहीं देखते ।जो सरयू तट पर बैठ कर अपने दाग धोना चाहता है ।)

Thursday, 29 November 2012

बेटिकट यात्री - कहाँ है जगह तुम्हारी

कोशिश कर सकते हो चढ़ने की ,
बोलो ,कहाँ है जगह तुम्हारी ।

दर्जे केवल दो ही है ,
दूसरा पहला ।

भरा है दूसरा खचाखच ,
लदे है लोग एक दूजे पर ,
हो रही है मारामारी ,
बोलो ,कहाँ है जगह तुम्हारी ।

निर्भीक हो चढ़ जाओ पहले दर्जे में ,
अगर हो आरक्षित हो सीट तुम्हारी ,
दौडकर जबरन कर जबरन चढोगे ,
बेज्जती  लांछन शायद सजा के होगे अधिकारी ,
घूस दोंगे तो ही शायद होगी तुम्हारी ,
बोलो ,कहाँ है जगह तुम्हारी ।

मुमकिन है समझ रहे जिसको पहला वो दूजा निकले ,
धक्मधक्के शोर शराबे से भरा वहाँ भी क्या भरोसा ,
कोई और बेधड़क, रौब या चतुराई से बैठा निकले ।

बहराल शायद नहीं हो किसी भी जगह के तुम अधिकारी ,
कुछ भी कर लो हैसियत थी रहेगी बेटिकट यात्री की तुम्हारी ।






Wednesday, 7 November 2012

आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा



 आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा ,
 कब तक चलूँगा ईमान रास्ते पर कभी तो भटक ही जाऊँगा ।

लड़ता रहूँगा ताउम्र सच की खातिर,

जब पेट पर आयेगी तो बहक भी जाऊँगा  ,

आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा  ।

 कब चलता रहूँगा सूने रास्तों पर ,
 कभी तो किसी बेईमान दुपहिये पर लटक ही जाऊँगा ,
 आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा  । 

चटकते सब है चटकूँगा  मै भी पर  ,
दो चार को  आईना दिखा ही जाऊँगा  ,
आईना हूँ एक दिन तो चटक ही जाऊँगा  ।

Friday, 21 September 2012

पेड़ो पर भी उगने लगे है पैसे

 पेड़ो पर भी उगने लगे है पैसे देखो खेल सियासत के कैसे कैसे ,
बेचते रहते है ईमान सरेआम है लोग कैसे कैसे |

बन गए लफंदर हमारे आका वोट बिके जैसे जैसे ,
जो बिके नहीं वो टिके है यहाँ वहाँ जैसे तैसे |

पेड़ो पर भी उगने लगे है पैसे देखो खेल सियासत के कैसे कैसे ,
बच्चे न रहे न  माँये न रही   ,दंगे हुए कैसे कैसे |

सियासी लोग हँसते रहे सर  कटे जैसे जैसे ,
दंगाई भगवान बने राम बचे जैसे तैसे |

पेड़ो पर भी उगने लगे है पैसे देखो खेल सियासत के कैसे कैसे ,
जीरो भी न गिन पाए लोग घोटाले हुए  कैसे कैसे 












Monday, 17 September 2012

बदलता कुछ भी नहीं -1

बदलता कुछ भी नहीं 
डर वही है जो सदियों पूर्व  थे |
म्रत्यु के, भूख के, लाज के 
आज भी मारे  जाते है लोग 
 ईश्वर के नाम पर |


बदलता कुछ भी नहीं
लूट नहीं लूट के तरीके बदलते है |
नित जुड़ते है नए आयाम लूटशास्त्र में
चहेरे बदलते है, शासको के  महत्वाकांछाये नहीं
बदलते है तानाशाही के तरीके  प्रजातंत्र के नाम पर |


बदलता कुछ भी नहीं 
देह नहीं बदलती, देह के दर्द नहीं  बदलते |
देह खाती है साँस लेती है सोती है आज भी
आज भी देह बिकती है ,  इन्सान की
आज भी रोती है ,माँये पुत्रविलाप मे
आज भी बिकते है  इमान, सरे बाजार पर  |

Friday, 14 September 2012

तिहाड़

आदमी को शरीफ होना चाहिए।
 गाय को दूध देना चाहिए।
  न्यायाधीश को न्याय देना चाहिए।
 राजा को प्रजा-वत्सल होना चाहिए।
 प्रेमी को निष्ठावान होना चाहिए।
 बच्चों को आज्ञाकारी होना चाहिए।
 घर पर अटारी होना चाहिए। 
अटारी पर चांद आना चाहिए।
 चांद के पार जाना चाहिए। 
चांद पर भी पड़ोसी सज्जन होना चाहिए।
 वहां के लिए ट्रेन समय पर छूटनी चाहिए। 
नलों में पानी आना चाहिए। 
पानी में प्रदूषण नहीं होना चाहिए।

प्रकृति को बचाने के लिए दौड़ना चाहिए।
 दौड़ में ज्यादा से ज्यादा लोग आएं इसके लिए कुछ सुंदरियां होनी चाहिए। 
सुंदरियों को पतिव्रता होना चाहिए।
 पति को सत्यवान होना चाहिए।
 शर्म को शर्म होना चाहिए। 
धर्म ही कर्म होना चाहिए। 
योजनाओं का पहाड़ होना चाहिए और एक लंबी-चौड़ी तिहाड़ होना चाहिए। 

Saturday, 14 July 2012

नींद में भी


नींद में भी कभी बारिश होती है।
भिगो देती है मेरी हृदय की माटी कभी उर्वर सीने में
उगते हैं सपनों के उद्भिद।
बारिश उनके लिए यत्न करती है
लहू से भर देती रक्त कर्णिका की नदियों को।

नींद में भी कभी गुलाब खिलते हैं आँखों में।
प्रेम रहता है मेरे जागरण तक।

Friday, 13 July 2012

ग़रीबी

मेरे पास बस एक भाषा है
चुप्पी

मेरे पास बस एक पूंजी है

ग़रीबी

मेरे पास एक पूरी दुनिया है

मुझे एक ऐसी धरती दिखाओ

मुझे एक ऐसी धरती दिखाओ
जहाँ की औरतें
वहाँ के पोस्टरों पर बनी औरतों से ज़्यादा ख़ूबसूरत हों
और जिनका ईश्वर लगाता हो
मेरी आँखों के गिर्द, मेरे माथे पर और मेरी दुखती गर्दन पर
अच्छे-अच्छे लेप

'फिर कभी नहीं पाऊँगा अपनी आत्मा के लिए आराम'
हर दिन
एक नया आख़िरी दिन
गुज़र जाता है और मैं ज़रूर लौटता हूँ
उन जगहों पर जहाँ वे मुझे नापते हैं
तब तब बढ़ चुके पेड़ों से और उस सबसे जो नष्ट हो चुका

मैं अपने पैर पटकता हूँ और घसीटता हूँ
अपने जूते
चढ़ पाने के लिए उस उस सब पर
जो मुझे पहले ही नीचे धकेल चुका है
मेरी आत्मा का गोबर
भावनाओं की धूल
और प्रेम की रेत